News Agency : चुनाव में जाति एक अहम दबाव समूह है। बिहार की राजधानी पटना में कायस्थ वोटर डिसाइडिंग फैक्टर हैं। पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र में इनकी आबादी चार लाख से अधिक है। इनका समर्थन जिसे हासिल होगा उसकी ही गोटी लाल होगी। इस सीट पर भाजपा के रवि शंकर प्रसाद और कांग्रेस के शत्रुघ्न सिन्हा के बीच लड़ाई है। दोनों ही कायस्थ जाति से आते हैं। दोनों की अपनी अलग प्रतिष्ठा है। अब सवाल है कि कायस्थ मतदाता किसको वोट करेंगे ?
कायस्थ समाज पढ़ा लिखा तबका है। बौद्धिक रूप से समृद्ध है। वैचारिक रूप से मजबूत रहने के कारण वह मतदान के लिए तार्किक नजरिया रखता है। उनके इस नजरिये के समझने के लिए हमें फ्लैशबैक में चलना होगा। कृष्ण वल्लभ सहाय बिहार के पहले कायस्थ मुख्यमंत्री रहे हैं। 1967 में जब बिहार विधानसभा के लिए चौथा चुनाव हो रहा था तब वे बिहार के मुख्यमंत्री थे। शासन के दौरान उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। उनके खिलाफ एक हवा तैयार हो गयी थी। कृष्ण वल्लभ सहाय की कर्मभूमि हजारीबाग थी। लेकिन 1967 के विधानसभा चुनाव में वे पटना से मैदान में उतरे। पटना में कायस्थ वोटरों की संख्या को देख उन्हें लगता था कि उनकी चुनावी नैया पार लग जाएगी। लेकिन कृष्ण वल्लभ सहाय को कायस्थों के एक और बड़े नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने चुनौती दे डाली। महामाया प्रसाद सिन्हा मुखर वक्ता थे।
उस समय बिहार में उनके भाषणों की बहुत धाक थी। के बी सहाय पटना में घूम कर ये बताते रहे कि कायस्थ होने की वजह से उन्हें फंसाया गया है। भ्रष्टाचार के आरोप, विरोधियों की साजिश हैं। खुद को कायस्थ समाज का पहला सीएम बता कर वोट मांगते रहे। उनकी काट में महामाया प्रसाद सिन्हा जोरदार भाषण करते रहे। उस समय भी कायस्थ समाज असमंजस में था। लेकिन सोच विचार कर उन्होंने महामाया प्रसाद सिन्हा को वोट दिया। बिहार में पहली बार कोई नेता सीएम पद पर रहते हुए खुद चुनाव हार गया। महामाया प्रसाद सिन्हा ने के बी सहाय को करीब बारह हजार वोटों से हरा दिया था। बाद में महामाया प्रसाद सिन्हा 1967 में बिहार के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। इस तरह वे कायस्थ समाज से आने वाले दूसरे मुख्यमंत्री बने।
महामाया प्रसाद सिन्हा ने चूंकि एक सीटिंग सीएम को हराया था इस लिए उन्हें कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गज नेता के रहते हुए मुख्यमंत्री बनाया गया था। इससे समझा जा सकता है पटना में कायस्थ समाज कितने तार्किक आधार पर वोट करता है। उसके लिए जाति ही सब कुछ नहीं है, विचार भी मायने रखते हैं। 1989 के भागलपुर दंगे के बाद बिहार ही नहीं देश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव आया था। कांग्रेस का पतन हो गया। मंडल और कमंडल की लड़ाई शुरू हो गयी। इस दौर में कायस्थ भाजपा से जुड़ गये। 1989 में पटना लोकसभा क्षेत्र से भाजपा ने प्रोफेसर शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव को खड़ा किया था। वे पटना विश्वविद्यालय के चर्चित शिक्षक थे। शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने शानदार जीत हासिल की।
उस समय कायस्थ जो एक बार भाजपा से जुड़े तो उनका रिश्ता और गहरा होता गया। उनके लिए भाजपा अहम हो गयी और प्रत्याशी गौण हो गया। 1998 में भाजपा ने बिहार के चर्चित चिकित्सक डॉ. सीपी ठाकुर को टिकट दिया था। डॉ. ठाकुर भूमिहार समाज से आते हैं लेकिन इसके बाद भी कायस्थ वोटरों ने उनको थोक भाव में वोट दिये। वे जीते भी। 1999 में सीपी ठाकुर फिर इस सीट पर जीते। पिछले दो चुनाव में लालू यादव ने पूरी ताकत झोंक दी थी। फिर भी राजद के रामकृपाल यादव नहीं जीत पाये थे। जबकि वे पहले दो बार 1993 और 1996 में जीत चुके थे। कायस्थ समाज ने दिल खोल कर सीपी ठाकुर को समर्थन दिया था, इसलिए दो बार उनकी जीत हुई थी।
जब डॉ. सीपी ठाकुर राज्यसभा में चले गये तो पटना सीट पर शत्रुघ्न सिन्हा का आगमन हुआ। 2009 में यह क्षेत्र पटना साहिब के नाम से जाना गया। शत्रुघ्न सिन्हा 2009 में जीत कर लोकसभा पहुंचे। फिल्म अभिनेता के रूप में शत्रुघ्न सिन्हा की अपनी मकबूलियत थी लेकिन जातीय समीकरण को ध्यान में रख ही वे पटना साहिब से चुनाव लड़ने आये थे। वर्ना पहला चुनाव तो उन्होंने दिल्ली से लड़ा था। पहले कार्यकाल में शत्रुघ्न सिन्हा पर अपने क्षेत्र और अपने वोटरों की उपेक्षा का आरोप लगा था। वे बहुत कम पटना आते थे। कभी कभार आते भी तो चुनाव क्षेत्र में नहीं निकलते थे। उनका कार्यकर्ताओं से नहीं के बराबर सम्पर्क था।
2014 के चुनाव के समय पटना में उनके खिलाफ गहरी नाराजगी थी। लेकिन भाजपा ने फिर उनको टिकट दे दिया। कायस्थ समाज समेत भाजपा के तमाम वोटरों ने एक बार फिर कमल छाप पर ही बटन दबाया। इस बार वोट शत्रुघ्न सिन्हा को नहीं भाजपा को मिला था। 2019 में भी कायस्थ वोटरों का कहना है कि वे जाति नहीं, उम्मीदवार नहीं, केवल कमल छाप पर बटन दबाने वाले हैं। अब शत्रुघ्न सिन्हा राजद और कांग्रेस के वोट की चिंता करें।